"बहुत याद आती"
(माँ की यह कविता सम्भवतः २००३ में उन्होंने लिखी थी। यह मुझे उनके पर्स में मिली थी। शायद वो इसे अपनी डायरी में नहीं लिख पायी थीं। एक पन्ना पड़ा था। इसी से शुरुआत कर रही हूँ। तारीख नहीं लिखी। )
(माँ की यह कविता सम्भवतः २००३ में उन्होंने लिखी थी। यह मुझे उनके पर्स में मिली थी। शायद वो इसे अपनी डायरी में नहीं लिख पायी थीं। एक पन्ना पड़ा था। इसी से शुरुआत कर रही हूँ। तारीख नहीं लिखी। )
बहुत याद आती हैं गाँव कि गलियाँ,
गाँव की गलियाँ, बाबुल की देहरियाँ,
बाबुल की देहरियाँ, संग की सहेलियाँ,
बहुत याद आती है माँ की अँगनिया ।
तुलसी के गीत और पीर मीरा की,
सूरा के भजन और वाणी कबीर की,
भोर उठ गाती थी अम्मा की चकिया,
अम्मा की चकिया के संग खुलती थी अंखियाँ।
झकझोर देती आज फागुन की बयार,
मन भर आये देख रंगों की बहार,
बार बार याद आये होली कि गुझियाँ,
होली के रंग संग याद आये भाभी की बहियाँ।
पावस की ऋतु आयी, आँखें होंय झार झार,
याद आये झूले और सावन की मल्हार,
हूक उठी उर में सुन कूक कोयलिया की,
आई हो "पाती" जैसे प्यारे भैया की।
याद हो आई उनकी सूनी कलाइयाँ,
बहुत याद आती है ...
बाबुल की देहरियां
और अम्मा की अँगनिया।।
-डॉ ऊषा सिंह
Ati sundar........you have done a very nice job Pragya. Hat's off....I also want to do this for my mom....let's see when we willbe able to do this.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना!
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